पहाड़ की हो रही है उपेक्षा,सरकार अपनी पीठ खुद ठोक रही

Spread the love

रमेश राम

लोहाघाट/ चम्पावत/टनकपुर। पर्वतीय क्षेत्रों के गांवों की घोर उपेक्षा व नजरअंदाज किए जाने के कारण उत्पन्न मूलभूत तमाम समस्याओं से मजबूरी में ही गांव वाशिंदे अपनी जरुरी आवश्यकताओं को पूर्ण करने के लिए ही प्रतिवर्ष कई परिवार कस्बों व नगरों की तरफ दबाव के कारण प्रतिकूल विभिन्न विषम परिस्थितियां पैदा होती जा रही हैं। पहले ही विषम भौगोलिक स्थिति में पर्वतीय क्षेत्र से घिरे जनमानस बेहद संघर्षों में जीवन यापन कर रहे हैं। वहीं सरकारों की उनके प्रति घोर लापरवाही एवं संवेदनशील न होने तथा सुनियोजित विकास के लिए चिंतन –मंथन से दूरी रखने से पलायन ने छूत की रोग सी बीमारी (पेस्टिलेंस)ले ली हैं। एक –दूसरे की देखा– देखी व स्वाभाविकता भविष्य की डोर खतरे में संभावित दिखाई देने पर पलायन ही एक सुरक्षित व राष्ट्र की मुख्य धारा में जुड़ने को ही अपना व परिवारों का भविष्य सुरक्षित समझ रहे हैं। यानी कि जनमानस में अपने ही पहाड़ के प्रति अत्यधिक एवं अस्वाभाविक भय तथा अरुचि (फोबिया) के भाव पैदा होते जा रहे है। जिसका नतीजा पलायन के रूप में दिखाई दे रहा है। सच तो यह है कि अभी तक शासन –प्रशासन एवं जनता जनार्दन के सेवकों ने पहाड़ को जीवित रखने हेतु गंभीरता से चिंतन –मंथन करने की पहल की ही नहीं है। यदि कोई कहे भी कि हमने पहाड़ों का चौतरफा विकास किया है। तो पहाड़ को कमर टूटने एवं छिन्न –भिन्न होने की नौबत क्यों दिखाई दे रही हैं। जबकि सारे जनप्रतिनिधि इसी पहाड़ी राज्य के मूल निवासी ही हैं। तथा वे बखूबी से पहाड़ी क्षेत्रों की तमाम विषमताओं से बारीकी से जानते हुए भी नजरअंदाज करते आ रहे हैं। क्योंकि वे तो अपनी मात्र– भाषा, संस्कृति व जमीन से जुड़ी अनेकों यादें भुलाकर गांव/क्षेत्र छोड़कर महानगरों में अपने आशियाने बना बैठे है। तो उन्हें क्या जरूरत व लगाव है इन पहाड़ों से। पहाड़ तो उनके लिए एक कामधेनु है।आजकल पलायन शब्द तो ज्यादा ही नेताओं, समाजसेवकों व अन्य चतुर चालाक लोगों की जुबान पर उछल रहा हैं। कि पलायन से पहाड़ खोखले व खण्डर होते जा रहें हैं। राजनीतिक गहमा– गहमी भी देखी जा रही है। पलायन रोकने को तमाम अपने– अपने तौर– तरीकों से भ्रमण गोष्ठियां हो –हल्ला चिंताएं भी जताई जा रही हैं। कि पलायन पहाड़ के विनाश का नासूर बनता जा रहा हैं। अब यक्ष प्रश्न गले से नीचे नही उतरता कि वे नेता समाजसेवा व अनेक अलंकरणों से विभूषित बुद्धि जन– मानस जो चिल्ला –चिल्लाकर पलायन को रोकने की बकायत कर रहे हैं। वे ही कई सालों पहले अपने पूर्वजों के गांव –गली को छोड़कर चल बसे हैं सुख सुविधाओं के नगरों में। यही तक नहीं कई दशकों से गांव की तरफ मुड़कर नहीं देखा। हां, तो ऐसे पहाड़ के लोग पलायन रोकने की बात कर रहे है। शर्म आनी चाहिए पहले खुद पर काली छाया आने को रोको तब औरों को कहना भी ठीक लगता है। अन्यथा तुम्हारी पलायन रोकने की पहल करने का कोई मायना ही नहीं है।
हां, जनसभाओं एवं समाचार पत्रों में छपवाकर पलायन नहीं रोका जा सकता हैं। खुद तो पहाड़ को छोड़ चले हैं। दूसरों को कहते आ रहे हैं कि पहाड़ में ही डंटे रहो। स्वर्ग से सुंदर हैं ये हमारे पहाड़। कोई इस तरह सोचने वाले है ही नहीं। अस्पताल बिना डॉक्टरों के खाली पड़े हैं पहाड़ों के डॉक्टर खाली घूम रहे हैं। सेवाओं में शिथिलता देकर उनसे सेवा लेने पर विचार करे पहाड़ के लोगों के प्रति सरकारों की अनदेखी व पहाड़ के प्रति जिम्मेदार न निभाने पर गांव के वाशिंदों के पास पलायन के सिवाय कोई विकल्प हैं भी तो नहीं। खाली हो रहे स्कूलों, अस्पतालों में डॉक्टरों को भेजने, पहाड़ी परिवेश के मुताबिक वहां पर खेती न करने के तरीके, दिनों– दिन जंगली जानवरों से खेती एवं जानमाल को नुकसान पहुंचाने, नदियों से खेतों में सिंचाई हेतु पानी न पहुंचने के तरीके, सरकार के नाक के नीचे भ्रष्टाचार की जड़ों को समूल नष्ट न करने, कर्मचारियों का हड़ताल किए जाने पर रोक न लगाने, नेताओं अधिकारियों के पहाड़ के प्रति सकारात्मक आत्मीय उन्नति के लगाव व कुशल कार्य प्रणाली का दायित्व न निभाना। पांच हजार की नौकरी के लिए युवा शक्ति का शहरों की तरफ भागना, सरकारी सुविधाओं का गांव– गांव में न जाकर संज्ञान दिलाना। विद्युत सड़कों की खस्ता हालातों व अन्य कई मूलभूत समस्याओं के कारण ही पहाड़ का जनमानस पलायन होने को मजबूर है।
ऐसा भी नहीं कि इस पलायन की घातक बीमारी से निजात न मिले, लेकिन कोई मर्ज को तो समझे व उसे दूर करने की सोच व नीति बनाए। लेकिन अधिकार सम्पन्न तंत्र अपनी रोटी रोकने व राजनीतिक पद बचाने की जोड़– जुगत में ही मशगूल हैं। आज पहाड़ में अनजान लोगों की चहल –कदमी नित रोज दिखाई दे रही है। ये लोग कौन हैं, क्या हैं, इनसे कोई जांच पूछने वाले नहीं हैं जो कि सामरिक दृष्टिकोण से पहाड़ के लिए शुभ संकेत नहीं हैं।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *