विवाहित बहिनें एवं बेटियां सालभर किस महीने का करती हैं इंतजार

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संवाददाता रमेश राम लोहाघाट/ चम्पावत।
चैत्र का महीना हमारी परम्परा में भिटोलिया के रूप में जाना जाता हैं। विवाहित बहिनें एवं बेटियां सालभर से इस महीने के इंतजार में रहती हैं और यह कहती हैं कि ‘मेरी ईजू आली, भिटौली लाली’। या फिर कहती हैं। ‘मेरो भाई आलो, भिटौली लालों’। भिटौली शब्द भेंट से बना हैं। इस महीने हर विवाहित औरत का अपने माइके
वालो से भेंट हो पाना संभव होता हैं। भिटौली के रूप में माइके वाले तरह– तरह के पकवान बनाकर अपनी बहन– बेटी के लिए ले जाते हैं बदलते समय के साथ ही इस परंपरा में भी बदलाव आया है। अब माइके वालों द्वारा मिठाई व साथ में वस्त्र, दक्षिणा, भेंट आदि। प्रदान कर भिटौली की परंपरा का निर्वाह किया जा रहा है। शादी के बाद की पहली भिटौली लड़की को उसी समय या फिर शादी के बाद के पहले फागुन मास में दी जाती हैं दूर दराज में नौकरी तथा समयाभाव के चलते अब बहुत सारे लोग बेटी व बहन को रूपये भेज देते है। जिससे भिटौली वह स्वयं खरीद व बना लेती हैं। साथ आस पड़ोस में बाँट भी देती हैं। इस सबसे अलग ससुराल में रह रही बेटी व बहन को रूपये भेंट आदि से अधिक चाहत अपने मायके वालों से मिलने की होती हैं। वह चाहती हैं कि भिटौली के बहाने मेरे मायके वाले मेरे घर आंगन आए और मैं उनसे मायके के खूब हालचाल जानू और बातचीत करू, लेकिन आधुनिकता अब इस परंपरा को भी प्रभावित कर रही है। हो सके तो मायके वालों को भिटौली के बहाने अपने बहन –बेटी के घर अवश्य जाना चाहिए।
भाई –बहन के प्रेम को संजोती चैत की भिटौली। लोक सांस्कृतिक विरासत से उत्तराखंड के गाँव आज भी अपनी परंपरा को जीवन्त बनाए हुए हैं। जीवन में चाहे कितनी भी विषम परिस्थितियां क्यों न हों पर यहां की जिजीविषा कभी समाप्त नहीं होती जैसे यहां की भौगोलिक संरचना में भूभागों में उतार– चढ़ाव है। वैसे ही जीवन में भी उतार– चढ़ाव दिखाई देते हैं। लेकिन परस्पर स्नेह मिलन में जीवटता की कोई कमी नहीं दिखाई देती। यहां का रहन –सहन पहनावा खान –पान सब कुछ में अलग ही विशेषता हैं। हमारा यह पहाड़ी आंचल दहेज, पर्दा, छुआछूत जैसी अनेक कुरीतियों से भी अछूता है। यहां का सामाजिक जीवन मानवीय मूल्यों और भावनाओं के ताने– बाने से बना हुआ है। अनेक प्रकार की अनूठी परंपराओं के लिए भी उत्तराखंड अपनी अलग पहचान को आज भी बनाए हुए हैं। भाई– बहन के प्रेम की एक विशेष परंपरा भिटौली देने की प्राचीन भावनात्मक परंपरा है। पहाड़ में सभी विवाहित बहनों को जहां हर वर्ष चैत मास का इंतजार रहता हैं वहीं भाई भी इस माह को याद रखतें हैं। और अपनी बहन को ‘भिटौली’ देते हैं।
‘भिटौली’ का शाब्दिक अर्थ भेंट देने या उपहार देने से हैं। प्राचीन काल में यातायात के साधन सीमित थे तब यह भावनात्मक स्नेह मिलन की परंपरा उस दौर में काफी महत्व रखती थी तब भाई –बहन का स्नेह मिलन का माध्यम यह भिटौली ही होती थी। आज भी चैत माह में विवाहिता बहिनें अपने भाइयों से मिलने और घर से बने पकवान और उपहार का बेसब्री से इंतजार करती हैं। इसके जरिए भाई– बहन होने वाले माइको की विवाहिताओं की कुशल–क्षेम भी मिल जाया करती थीं। भाई अपने बहनों के लिए घर से अनेक परंपरागत व्यंजन तथा बहन के लिए वस्त्र एवं उपलब्ध होने पर आभूषण आदि भी लेकर जाता था। बाद के दौर में व्यंजनों के साथ ही गुड़, मिश्री व मिठाई जैसे वस्तुएं भी भिटौली के रूप में दी जाने लगी हैं। व्यंजनों को विवाहिता द्वारा अपने ससुराल के पूरे गांव में बांटा जाता था । भिटौली जल्दी आना बहुत अच्छा माना जाता था जबकि भिटौली देर से मिली तो भी बहनों की खुशी का पारा– वार न होता था। उत्तराखंड की विवाहिता महिला चैत मास आते ही अपने मायके वालों को याद करती हैं लोक गीत और दंतकथाओं में भी भिटौली का उल्लेख मिलता हैं। चैत मास में यह लोकगीत काफी प्रचलित होते है।
आज के बदलते दौर में भिटौली की परंपरा ग्रामीण क्षेत्रों में तो कमोबेश पुराने स्वरूप में ही जारी हैं लेकिन शहरी क्षेत्रों में भाइयों द्वारा ले जाए जाने वाले व्यंजनों का स्थान बाजार की मिठाइयों ने ले लिया है। भाई कई बार साथ में बहनों के लिए कपड़े ले जाते है और कई बार इनके स्थान पर कुछ धनराशि देकर भी परंपरा का निर्वहन कर लिया जाता हैं। आधुनिकता की इस दौर में रिश्तों में अब भावनात्मक लगाव अपेक्षाकृत कम हुआ हैं। अपने लोक पर्वों के प्रति लोगों में जो उत्साह बना रहता था वह अब व्यस्त के इस दौर में थोड़ा ओझल हुआ हैं। रही सही कसर पलायन का दंश पूरा कर दे रहा है। गांव से शहर की तरफ होता पलायन हमारी जड़ों से हमको दूर कर रहा है। भिटौली जैसे त्यौहार हमे अपनी लोक कथाओं, लोक मान्यताओं और लोक परंपराओं से रिश्तों की नाजुक रेशमी डोर को सम्हालने– सहेजने का सलीका सिखाती हैं। आज की दुनियां की अविलंब यात्रा में ये सभी चीजें पुरातन मानकर छोड़ दी गई हैं, जिनका नतीजा समाज और पारिवारिक संबंधों में बिखराव के रूप मे सामने आ रहा है। भाई– बहनों के बीच रिश्तों की मधुरता के लिए ही राखी– दूज, हरेला और भिटौली जैसे त्यौहार बनाए गये। जो दूर रहकर भी भावनात्मक रूप से जुड़ाव के प्रतीक हैं। यदि हम सब प्रयास करें तो जीविका के लिए उत्तराखंड छोड़कर लोग शहरों में बस गए हैं। उन्हें हम अपनी लोक संस्कृति के माध्यम से उत्तराखंड की समस्त परंपराओं के साथ जोड़कर रखते हैं यही परम्परा अपनी जड़ों से जोड़ने का काम करती हैं। साथ –ही –साथ उत्तराखंड वासी होने का अहसास उनमें सदा जीवित रहता हैं।

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