संवाददाता रमेश राम लोहाघाट/ चम्पावत/ टनकपुर। उत्तराखंड राज्य बनने के बाद से ही सरकारों के पहाड़ों के प्रति उदासीन रवैये के चलते राज्य अपनी क़िस्मत पर रो रहा हैं। पहाड़ का पानी और जवानी जिस तेजी से बर्बाद हो रहा है उसे रोकने वाला कोई नहीं है। उत्तराखंड के निर्माण की सोच ही पहाड़ के विकास के नाम पर आई थी। जिसके पीछे उद्देश्य यह था कि पहाड़ के लोगों के लिए अगर अलग से एक राज्य बनाया जाएगा तो यहां के लोगों को रोजगार मिलेगा और पहाड़ में होने वाले संसाधनों पर यहां के मूल लोगों का पूरा अधिकार होगा, साथ ही उन्हें दिल्ली ,मुंबई जैसे जगहों पर मजबूरी में रोजगार के लिए जाना नहीं पड़ेगा।
नए राज्य में वह अपने घर पर ही रोजगार प्राप्त करके विकास करेंगे, मगर राज्य बनने के बावजूद भी यहां के लोगों के सपने धरे के धरे रह गए। जब तक पर्वतीय क्षेत्र उत्तर प्रदेश के साथ था तो ऐसी अवधारणा थी कि पहाड़ के मूल निवासियों की सुध लेने वाला कोई नहीं। जिसकी वजह से यहां रहने वाले स्थानीय लोगों ने एक अलग राज्य की मांग उठाई।
मगर उत्तराखंड राज्य बनने के बाद भी यदि पर्वतीय समाज के लोगों को कुछ मिला तो थोक के भाव मुख्यमंत्री और नेता। मगर अफसोस कि पहाड़ की जवानी को रोकने वाली नीति आज तक नहीं बन पाई। मजबूरी में यहां की युवा शक्ति दूसरे प्रदेश में रोजी –रोटी की तलाश में जाने को मजबूर है।
गांव के गांव खाली हो चुके हैं युवाओं को यदि गांवों में ढूंढने चले जाए तो पूरे गांव में युवा शक्ति नहीं मिलेगी। यह सत्य है कि अगर उत्तराखंड का विकास करना है तो सबसे पहले पहाड़ का और यहां के स्थानीय निवासियों का विकास करना होगा। जिसमें फिलहाल सभी सरकारें नाकाम साबित हुई हैं। क्या सरकार से उम्मीद की जा सकती हैं? कि वह पहाड़ का विकास करने में अपना पूरा ध्यान दे पाएगी? अभी यह कहना मुश्किल है। पहाड़ में पलायन जिस विकराल रूप में सामने आया है और सभी सरकारें अब तक जिस तरह इस अहम मुद्दे पर उदासीन रवैया अख्तियार किए हैं उसमें तो आशंका है कि कही पहाड़ वीरान न हो जाए?
पहाड़ का पानी और जवानी हो रही है बर्बाद












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